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गालिब और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4983
आईएसबीएन :9789350642436

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गालिब की जिन्दगी, उनकी शायरी दीवान-ए-गालिब में से उनकी बेहतरीन गजलें

Galib Aur Unki Shayari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोकप्रिय शायर

नागरी लिपि में उर्दू के लोकप्रिय शायरों व उनकी शायरी पर आधारित पहली सुव्यवस्थिति पुस्तकमाला। इसमें मीर, ग़ालिब से लेकर साहिर लुधियानवी-मजरूह सुलतानपुरी तक सभी प्रमुख उस्तादों और लोकप्रिय शायरों की चुनिंदा शायरी उनकी रोचक जीवनियों के साथ अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित की गई हैं। इस पुस्तकमाला की प्रत्येक पुस्तक में संबंधित शायर के संपूर्णलेखन से चयन किया गया है और प्रत्येक रचना के साथ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं। इसका संपादन अपने विषय के दो विशेषज्ञ संपादकों-सरस्वती सरन कैफ व प्रकाश पंडित-से कराया गया है। अब तक इस पुस्तकमाला के अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों द्वारा इसे सतत सराहा जा रहा है।

 

ग़ालिब

ग़ालिब उर्दू के सबसे मशहूर शायर हैं। वे बहादुरशाह जाफ़र के ज़माने में हुए और 1857 का गदर उन्होंने देखा। अव्यवस्था और निराशा के उस ज़माने में वे अपना हृदयग्राही व्यक्तित्व, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आये। शुरू में तो लोगों ने उनकी मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेज़ी से बढ़ावा मिला कि शायरी दुनिया का नज़ारा ही बदल गया।

 

            पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
            कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

        ये मसाइले-तसव्वुफ़,1 ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
        तुझे हम वली2 समझते जो न बादहख़्वार3 होता


यह केवल मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की विनयशीलता है कि अपने बादहख़्वार होने के कारण उन्होंने अपने ‘वली’ होने का दावा नहीं किया, अन्यथा जहां तक उर्दू साहित्य का सम्बन्ध है, और इससे अधिक साहित्य तथा जीवन का सम्बन्ध है, ‘ग़ालिब’ न केवल अपने युग के ‘अदबी बली’ (साहित्यिक अवतार) थे, न केवल आधुनिक युग के ‘अदबी अली’ हैं, बल्कि जब तक उर्दू भाषा और उसका साहित्य मौजूद रहेगा, उनका स्थान ‘अदबी वली’ के रूप में सदैव बना रहेगा।
परम्पराओं से विद्रोह करने और डगर से हटी हुई बात कहने के अपराध में संसार जो व्यवहार हर ‘वली’ से करता रहा है, वही व्यवहार ‘ग़ालिब’ के साथ भी हुआ। ‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो थीं, भाषा तथा शैली के ‘चमत्कार ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) के वर्णन तक सीमित थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता एवं नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए और निराशावाद के बिल में दुबक गया। ऐसे समय में, जबकि अधिकांश शायर :


        सनम4 सुनते हैं तेरी भी कमर है,
        कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ?

 

1.    दर्शन-सम्बन्धी समस्याएँ,
2. सिद्ध, अवतार
3. मद्यप,
4. माशूक़।
और

 

        सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी।
        फ़लक पर1 आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर।।


को ‘नाजुक-ख़याली’ और शायरी का शिखर मान रहे थे, ‘ग़ालिब’ ने


            दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग।
            देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक2 ?

 

               और

 

            है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद।
            क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं3।।


की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :


            बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल।
            कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए4।।


की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस संसार की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन समस्त विरोधों और निन्दाओं को सहन करते रहे-हंस-हंसकर:
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1.आकाश पर, 2.हर लहर एक जाल है और इस जाल के फन्दे बहुत-से मगरों की तरह मुंह खोले हुए हैं। देखें मोती बनने तक (मरने तक) बूंद (मनुष्य) पर क्या-क्या विपत्तियां टूटती हैं। 3.नमाज़ काबे की ओर मुंह करके पढ़ी जाती है। ‘ग़ालिब’ कहते हैं कि काबा तो केवल (कम्पास की) सुई मात्र है जो रास्ता दिखाती है। सिजदे का वास्तविक स्थान तो काबे और समझ से बहुत परे है। 4.ग़ज़ल की तंग गली (संकुचित क्षेत्र) मेरे शेर कहने के शौक़ के अनुकूल सामर्थ्य नहीं रखती, मेरे बयान के लिए विशाल क्षेत्र की आवश्यकता है।

 

            न सताइश1 की तमन्ना न सिले2 की परवा।
            गर नहीं हैं मेरे अशआ़र में3 माने न सही।।

 

कहते हुए जीवन के गीत गाते रहे। यहां तक कि उनके क़लम की आवाज़ दैवी आवाज़ का रूप धारण कर गई और आज वही देवी आवाज़ हमारे कानों में गूँजकर और हमारे हृदय में उतरकर उद्भावनाओं के नये-नये मार्ग सुझा रही है। ‘ग़ालिब उर्दू भाषा के एकमात्र शायर और साहित्कार हैं जिनके व्यक्तित्व और साहित्य पर सबसे अधिक लेख, समालोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं। (उनके अपने ‘दीवान’ के तो इतने संस्करण निकल चुके हैं कि उसकी गणना संभव नहीं) और जिनके शे’रों को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार नये भावार्थ के साथ सामने आते हैं।
मिर्ज़ा असद-उल्ला खां ‘ग़ालिब’ जो पहले ‘असद’ उपनाम से और फिर ‘ग़ालिब’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए, 27 दिसम्बर, 1797 ई. को आगरा में पैदा हुए। गोत्र, वंश के बारे में एक स्थान पर उन्होंने स्वयं लिखा है कि :

‘‘असद-उल्ला खां उर्फ़ ‘मिर्ज़ा नौशा’, ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस (उपनाम), क़ौम का तुर्क, सलजूक़ी सुलतान बरकियारुक़ सलजूक़ी की औलाद में से, उसका दादा क़ौक़ान बेग ख़ां, शाह आलम के अहद (शासन-काल) में समरकंद से दिल्ली में आया। पचास घोड़े और नक़्क़ारा निशान से बादशाह का नौकर हुआ। पहासू का परगना, जो समरू बेगम को सरकार से मिला था, उसकी जायदाद में मुक़र्रर था। बाप असद-उल्ला खां मज़कूर (उल्लिखित) का बेटा अब्दुला बेग ख़ां दिल्ली की रियासत छोड़कर अकबराबाद (आगरा) में जा रहा। असद उल्ला ख़ां अकबराबाद में पैदा हुआ। अब्दुल्ला बेग ख़ां अलवर में रावराजा बख़्तारसिंह का नौकर हुआ और वहाँ एक लड़ाई में बड़ी बहादुरी से मारा गया। जिस हाल में कि असद-उल्ला ख़ां मज़कूर पाँच-छः बरस का था उसका हक़ीक़ी (सगा) चचा नस्रउल्ला बेग ख़ा मरहटों की तरफ से अकबराबाद का सूबेदार था। 1803 ई. में जब जनरल लेक अकबराबाद पर आए तो नस्रउल्ला बेग
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1.    प्रशंसा, 2. पुरस्कार, 3. शे’रों में।

ख़ां ने शहर सुपुर्द दिया और अताअत (अनुकरण) की। जनरल साहब ने चार सौ सवार का ब्रिगेडियर किया और एक हज़ार सात सौ की तनख्वाह मुक़र्रर की। फिर जब उसने अपने ज़ोरे-बाजू से सौंख, सौंसा दो परगने भरतपुर के क़रीब होल्कर के सवारों से छीन लिए तो जनरल साहब ने वो दोनों परगने बहादुर मौसूफ़ (उक्त महोदय) को बतरीक़े-इस्तमरार (हमेशा के लिए) अता फ़र्माये। मगर ख़ां मौसूफ़ जागीर मुक़र्रर होने के दस महीने के बाद बमर्गे-नागाह (अचानक मृत्यु) हाथी पर से गिर के मारा गया। जागीर सरकार में बाज़याफ़्त हुई। (वापस चली गई) और उसके एवज़ नक़दी मुक़र्रर हो गई और शरका (साझीदारों) को दे-दिलाकर साढ़े सात सौ रुपया इस शख़्त (ग़ालिब) की ज़ात को उसी ज़रे-मुआ़फी (रुपये) में से मिलते हैं।’’

पिता और चाचा के देहान्त के बाद मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ का पालन-पोषण उनके ननिहाल (आगरा ही में) हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के संबंध में अधिक सामग्री नहीं मिलती, लेकिन उनकी रचनाओं में खगोल, ज्योतिष, तर्क दर्शन, पदार्थ-विज्ञान, संगीत, तसव्वुफ़ इत्यादि की असंख्य परिभाषाओं से मालूम होता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा पर पूरा ध्यान दिया गया था। उनकी आयु दस-ग्यारह वर्ष से अधिक नहीं थी और अभी वो मकतब (पाठशाला) में पढ़ते थे कि उन्होंने शे’र कहना शुरू कर दिया। उन्हीं दिनों उन्हें फ़ारसी भाषा के एक बहुत बड़े विद्वान मुल्ला-अब्दुल समद ईरानी से, जो भ्रमणार्थ भारत आए थे, फ़ारसी पढ़ने का अवसर मिला। गुरु ने योग्य शिष्य की मनोवृत्ति भांपकर उसे फ़ारसी के प्राचीन तथा आधुनिक साहित्य की जानकारी दिलाने में कोई कसर न उठा रखी। स्वयं मिर्ज़ा, ‘ग़ालिब’ ने अपनी पुस्तकों में जहाँ कहीं उनकी चर्चा की है, बड़े प्रेम और आदरपूर्ण शब्दों में की है। तेरह वर्ष की आयु में मिर्ज़ा का विवाह दिल्ली के लोहारु कुल की एक महिला उमराव बेग़म से हो गया और शादी के दो-तीन साल बाद वे स्थायी रूप से दिल्ली में आ बसे, जिसे एक स्थान पर उन्होंने यों बयान किया है :

‘‘सात रजब 1225 (9 अगस्त, 1810) को मेरे वास्ते हुक्मे-दवामे-हब्स (स्थायी क़ैद का हुक्म) सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदान (क़ैदखाना) मुक़र्रर किया और मुझे उस ज़िंदान में डाल दिया।’’

शे’रों-शायरी की लटक तो पहले से थी। अब दिल्ली पहुँचे तो यहाँ के शायराना वातावरण और आए दिन के मुशायरों ने क़लम में और तेज़ी भर दी। लेकिन नियमित रूप से शायरी में वे किसी के शिष्य नहीं बने, बल्कि अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के विशाल अध्ययन और ज्ञान के कारण उन्हें शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत त्रुटियाँ नज़र आईं, मस्तिष्क एक टेढ़ी रेखा और एक-प्रश्न बन गया और उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनका मत था कि हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती।’’

अंदाजे-बयां (वर्णन शैली) से नज़र हटाकर और ‘‘अंदाज़े-बयां और’’1 अपनाकर जब विषय वस्तु की ओर देखा तो वहाँ भी वही जीर्णता नज़र आई। कहीं आश्रय मिला तो ‘बेदिल’ (एक प्रसिद्ध शायर) की शायरी में जिसने यथार्थता की कहीं दीवारों की बजाय कल्पना के रंगों से अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर रखी थी। ‘ग़ालिब’ ने उस दीवार की ओर हाथ बढ़ाया तो उसके रंग छूटने लगे और आँखों के सामने ऐसा धुँधलका छा गया कि परछाइयाँ भी धुँधली पड़ने लगीं, जिनमें यदि वास्तविक शरीर नहीं तो शरीर के चिह्न अवश्य मिल जाते थे। अतएव बड़े वेगपूर्ण परन्तु उलझे हुए ढंग से पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने लगभग 2000 शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले, जिस पर उर्दू के प्रसिद्ध शायर और उस्ताद मीर तक़ी ‘मीर’ ने भविष्यवाणी की कि ‘‘अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।’’
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1.    हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और।।

यह कामिल उस्ताद ‘ग़ालिब’ को कहीं बाहर से नहीं मिला, बल्कि यह उनकी आलोचनात्मक दृष्टि थी जिसने न केवल उस काल के 2000 शे’रों को बड़ी निर्दयता से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने हृदय-रक्त से लिखे हुए अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे।
‘ग़ालिब’ जब तक आगरा में रहे, उन्हें ख़र्च की कोई तंगी न रही। दिल्ली आए तो कुछ समय तक यहाँ भी वही रंग-ढंग रहा। साढ़े सात सौ रुपये की वार्षिक पेनशन नवाब अहमद बख़्श ख़ां से मिलती थी। रियासत अलवर से भी कुछ न कुछ आ जाता था। माता जीवित थीं, वे कभी-कभार कुछ भेज देती थीं, लेकिन यह सम्पन्नता अधिक दिनों तक न चली। नवाब अहमद बख़्श ख़ां ने 1826 ई. में अंग्रेजी राज्य और अलवर दरबार की स्वीकृति और अपने ख़ानदान की रज़ामंदी से अपनी जायदाद का विभाजन कर दिया और स्वयं एकांतवास धारण कर लिया। ‘ग़ालिब’ की पेनशन से संबंधित इलाक़ा चूँकि नवाब अहमद बख़्श ख़ां के बड़े लड़के शम्सउद्दीन अहमद ख़ां के हिस्से में आया था और ‘ग़ालिब’ के सम्बन्ध नवाब के विरोधी लोगों से थे, इसलिए पहले तो पेनशन की अदायगी में तरह-तरह के रोड़े अटकाए गए और फिर अप्रैल 1831 ई. में वह बिल्कुल बंद कर दी गई। इसके साथ ही ऋणदाताओं ने (मिर्ज़ा अपने सुख, विलास और मदिरापान के लिए प्रायः ऋण लेते रहते थे) मारे तकाज़ों के नाक में दम कर दिया। विपत्ति पर विपत्ति यह पड़ी कि उनके छोटे भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ उन्हीं दिनों अट्ठाईस वर्ष की आयु में पागल हो गए। परिणाम इसका यह हुआ कि मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’, जिन्होंने तंगी और परेशानी का एक दिन भी न देखा, था विपत्तियों का ऐसा पहाड़ टूट पड़ने से एकदम घबरा गए। इसी सम्बन्ध में, अर्थात् अपनी पेनशन का झगड़ा गवर्नर-जनरल की कौंसल द्वारा चुकवाने और उसे फिर से ज़ारी कराने के सम्बन्ध में, उन्होंने कलकत्ता की लम्बी यात्रा की और तीन वर्ष वहाँ गुज़ारे। वहाँ, और रास्ते में लखनऊ आदि शहरों में, उन्होंने बड़े-बड़े उस्तादों से लोहा भी लिया।
पेनशन का झगड़ा कहीं 1837 ई. में जाकर तै हुआ जब नवाब शम्सउद्दीन ख़ां एक अंग्रेज़ रेज़ीडैंट का वध कराने के अपराध में फाँसी पर लटका दिए गए और उनकी रियासत अंग्रेज सरकार ने अपने अधिकार में ले ली। इस बीच में ‘ग़ालिब’ :

 

            
            क़र्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हाँ।
            रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।।

 

पर अमल करते हुए चालीस-पचास हज़ार के ऋणी हो गए; और एक दीवानी मुक़दमे के सिलसिले में जब उनके विरुद्ध 5000 रुपये की डिगरी हो गई, तो उनका घर से बाहर कदम रखना असम्भव हो गया। (उन दिनों यह नियम था कि यदि ऋणी कोई सम्मानित व्यक्ति हो तो डिगरी की रक़म अदा न करने की हालत में उसे केवल उस समय गिरफ़्तार किया जा सकता था जब वह अपने घर की चारदीवारी से बाहर हो।) यह इन्हीं और भावी विपत्तियों की ही देन थी कि उनके क़लम से :


        रंज से ख़ूगर1 हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज।
        मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।।


ऐसे उच्चकोटि के अनुभवपूर्ण शे’र निकले। यह मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ ही की विशेषता थी कि उन दिनों, जबकि साहित्य-समालोचना का लगभग अभाव था, उन्होंने शायरी का यह भेद पा लिया कि शे’र शून्य में टामक-टोइयाँ मारने का नहीं, किसी अनुभव के व्यक्तिगत प्रकटीकरण का नाम है और यह कि प्रत्येक काल में बड़ा शायर केवल वही हो सकता है जो अपने काल की विडम्बनाओं तथा संघर्षों को सहिष्णुता और आत्म-सम्मान में रचे हुए संकेतों में प्रकट कर सके। आने वाली पीढ़ियों में बिना उपदेशक बने यह अनुभूति उत्पन्न कर सके कि उनको भी अपने
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1.    अभ्यस्त।
काल की नई और जटिल कठिनाइयों का मुक़ाबला सहिष्णुता और आत्म-सम्मान के साथ करना है।
साढ़े सात सौ रुपये वार्षिक की पेन्शन तो पुनः जारी हो गई, लेकिन इतने भर से क्या होता था। व्यक्तित्व और पारिवारिक व्यय और मुक़द्दमों और ऋणदाताओं ने जीना दूभर कर दिया। कई बार उन्होंने किसी रियासत की नौकरी करने के बारे में भी सोचा, लेकिन चरम सीमा पर पहुँचे हुए आत्म-सम्मान ने इस बात की आज्ञा न दी।

आत्म-सम्मान की हालत यह थी कि 1852 में जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया और अपनी दुरवस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेट्री, गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि उनके स्वागत को टामसन साहब बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को  पालकी वापस ले चलने के लिए कह दिया(ग़ालिब जहाँ कहीं जाते थेचार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे।) टामसन साहब को सूचना मिली तो बाहर आए और कहा कि चूँकि आप मुलाक़ात के लिए नहीं नौकरी के लिए आए हैं इसलिए कोई स्वागत को कैसे हाज़िर हो सकता है ? इसका उत्तर मिर्ज़ा ने यह दिया कि मैं नौकरी इसलिए करना चाहता हूँ कि उससे मेरी इज़्ज़त में इज़ाफा हो, न कि जो पहले से है, उसमें भी कमी आ जाए। अगर नौकरी के माने इज़्ज़त में कमी आने के हैं, तो ऐसी नौकरी को मेरा दूर ही से सलाम ! और सलाम करके लौट आए।

आर्थिक परेशानियाँ पूर्ववत् थीं कि मई 1847 ई. में मिर्ज़ा पर एक और आफ़त टूटी। उन्हें अपने ज़माने के अमीरों की तरह बचपन से चौसर, शतरंज आदि खेलने का चसका था। उन दिनों में भी वे अपना ख़ाली समय चौसर खेलने में व्यतीत करते थे और मनोरंजनार्थ कुछ बाजी बदलकर खेलते थे। चांदनी चौक के कुछ जौहरियों को भी जुए की लत थी, अतएव वे मिर्ज़ा ही के मकान पर आ जाते थे और यों धीरे-धीरे उनका मकान एक बाकायदा जुआखाना बन गया। एक दिन जब मकान में जुआ हो रहा था, शहर कोतवाल ने मिर्ज़ा को रंगे-हाथों पकड़ लिया1।

शाही दरबार (बहादुरशाह ज़फ़र’ और दिल्ली के रईसों की सिफ़ारिशें गईं। लेकिन सब व्यर्थ। उन्हें सपरिश्रम छः महीने का कारावास और दो सौ रुपये जुर्माना हो गया। बाद में असल जुर्माने के अतिरिक्त पचास रुपये और देने से परिश्रम माफ़ हो गया और डॉक्टर रास, सिविल सर्जन दिल्ली की सिफ़ारिश पर वे तीन महीने बाद ही छोड़ दिए गए। लेकिन ‘ग़ालिब’ जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए यह दण्ड मृत्यु के समान था। एक स्थान पर लिखते हैं :

मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग (लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत (उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।
यह दुर्घटना व्यक्तिगत रूप से उनके स्वाभिमान की पराजय का संदेश लाई, अतअव :
            
            बंदगी2 में भी वो आज़ाद-ओ-खुदबी5 हैं कि हम।
            उल्टे फिर आयें दरे-काबा4 अगर वा न हुआ5।।

कहने वाले शायर ने विपत्तियों और आर्थिक परेशानियों से घबराकर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ का दरवाज़ा खटखटाया। बहादुरशाह ज़फ़र ने (जो स्वयं एक अच्छे शायर और उस्ताद ‘ज़ौक़’ के शिष्य थे) तैमूर ख़ानदान का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखने का काम मिर्ज़ा के
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1.    मौलाना हाली ने मिर्ज़ा के एक पत्र के आधार पर लिखा है कि ‘‘शहर का कोतवाल उनका पुत्र था, इसलिए उन्हें जुएबाज़ी के अपराध में पकड़ लिया।’’ यह बात सही नहीं है। ‘हाली’ चूँकि मिर्ज़ा के शिष्य और स्वयं बड़े चरित्रवान थे, इसलिए उन्होंने गुरु की लाज रखी है। 2.भक्ति, 3. स्वतन्त्र और आत्म प्रशंसक, 4. काबे का दरवाज़ा, 5. खुला न मिला।

सुपुर्द कर दिया और पचास रुपये मासिक वेतन के अतिरिक्त ‘नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम-जंग’ की उपाधि और दोशाला आदि ख़िलअ़त प्रदान की और यों मिर्ज़ा बाक़ायदा तौर पर क़िले के नौकर हो गए। जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है-1854 ई. में वलीअहद सल्तनत (राज्य के उत्तराधिकारी) फ़तह-उल-मुल्क मिर्ज़ा फ़ख़रू उनके शिष्य हुए। उनकी सरकार से चार सौ रुपया वार्षिक वेतन बँधा। उसी वर्ष 16 नवम्बर को उस्ताद ‘ज़ौक़’ का देहान्त हो गया और बादशाह ने भी अपनी ग़ज़लें मिर्ज़ा को दिखाना शुरू कर दीं। [मिर्जा ‘ग़ालिब’ इस काम को बादिले-नाख़्वास्ता (अनिच्छापूर्वक) करते थे।-‘हाली’, ‘यादगारे-ग़ालिब’] इसके अतिरिक्त बादशाह के सबसे छोटे शहज़ादे मिर्ज़ा ख़िज्र सुलतान ने भी उनकी शिष्यता ग्रहण की और कदाचित् उसी वर्ष नवाब वाजिदअली शाह की ओर से भी पाँच सौ रुपया वार्षिक वजीफ़ा नियत हो गया। स्पष्ट है कि इसके बाद मिर्ज़ा सुख की साँस लेने योग्य हो गए होंगे लेकिन दुर्भाग्य से यह स्थिति भी अधिक समय तक न रही। दो वर्ष बाद ही (1856 में) मिर्ज़ा फ़खरू हैज़े का शिकार हो गए। उसी वर्ष अंग्रेजों ने नवाब वाजिदअली शाह को तख्त से उतार दिया। फिर मई 1857 में ‘गदर’ हो गया और सितम्बर 1858 ई. में मिर्ज़ा ख़िज्र सुलतान हुमायूँ के मक़बरे पर से गिरफ्तार होकर मेजर हडसन की गोली का निशाना बन गए और बहादुरशाह ज़फ़र को निर्वासित करके रंगून भेज दिया गया।

‘ग़दर’ के दिनों में क्या कुछ हुआ और मिर्ज़ा पर क्या गुज़री, इसका उल्लेख मिर्ज़ा ने अपनी पुस्तक ‘दस्तंबो’ में किया है। लिखते हैं कि 11 मई को देसी फौज़ शहर में दाखिल हुई और उसी दिन मैंने मकान का दरवाज़ा बन्द करके बाहर की आमदो-रफ़्त ख़त्म कर दी। लेकिन मिर्ज़ा के कुछ अन्य बयानों से मालूम होता है कि (चूँकि उन्हें मालूम नहीं था कि ऊँट किस करवट बैठेगा, इसलिए) वे क़िले में भी हो आया करते थे। वास्तविकता जो भी हो, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह समय मिर्ज़ा पर बहुत भारी था। ख़र्च पूर्ववत् था और आय बिल्कुल नहीं थी। यदि उसके कुछ हिन्दू मित्र, उदाहरणतः हरगोपाल ‘तफ़्ता’ मेरठ से रुपया न भेजते और महेशदास शराब का प्रबन्ध न करते, तो मिर्ज़ा के कथनानुसार ‘कोई मेरी बेक़सी का गवाह न होता।’



 









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